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हिंदी निबंध : एक ऐसे व्यक्तित्व (शिक्षक) का परिचय दीजिए जो आपको विरासत में मिलकर आपका मार्गदर्शक बन गया है ।

विषय :- एक ऐसे व्यक्तित्व (शिक्षक) का परिचय दीजिए जो आपको विरासत में मिलकर आपका मार्गदर्शक बन गया है ।



" गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय,
 बलिहारी गुरु आपने ,गोविंद दियो बताय। "

गुरु और गोविंद अगर दोनों सामने खड़े हो तो भी पहले गुरु के ही पैर पड़ना चाहिए क्योंकि उन्होंने ही ईश्वर से मिलाया ।

सभी शिक्षक आदर्श होते हैं क्योंकि मैं एक बहुत अच्छा, पवित्र एवं जीवन-मूल्यों से युक्त जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। यूँ तो बालक अपने जीवन में अनेक अध्यापकों के संपर्क में आता है, परंतु सभी श्रेष्ठ गुरुजनों से क्षमा मांगते हुए मैं यह कहने का साहस कर रहा हूं कि कभी-कभी कोई व्यक्तिअपरिचित होते हुए भी सहसा हमारे बहुत निकट आ जाता है और हमारा सबसे प्रिय बन जाता है। जाने कब! पर बन ही जाता है क्योंकि उसका व्यवहार हमारे अवचेतन मन पर गहरा प्रभाव डालता है और स्थायी  स्थान बना लेता है। एक आदर्श शिक्षक में सदाचार, विनम्रता, मृदुता, स्वावलंबन, सहयोग, कठिन परिश्रम, आत्मनिर्भरता, सबको एक दृष्टि से देखना आदि होते हैं। वे अपने गुणों के कारण कठिनाई के रास्ते को भी सरल बनाते हुए चलते हैं। ऐसे शिक्षक मानवता के ऐसे सच्चे प्रतीक होते हैं जो समय आने पर इतिहास को नया मोड़ देते हैं और मानव-हृदयों पर सदा के लिए अमित छाप छोड़ जाते हैं। ऐसे ही आदर्श व्यक्तियों के लिए श्री हरीवंशराय बच्चन ने लिखा है :-

"अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या,
 पर गए कुछ लोग इस पर, छोड़ पैरों के निशानी ।
 यह निशानी मुक होकर की बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ पंथी,पंथ का अनुमान कर ले। 
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।"

 

इतिहास में कुछ भी व्यक्ति कैसे होते हैं जो आने वाली पीढ़ियों के लिए आदर्श बने रहते हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति थे स्वर्गीय श्री अयोध्या प्रसाद भटनागर जी, जो सहारनपुर में शाकुंभरीदास इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य थे। वे मेरे नाना जी थे। आपको अचरज हो रहा होगा कि मैंने एक आदर्श शिक्षक को और अपने पथ-प्रदर्शक के रूप में अपने नाना जी को ही क्यों चुना, अपने पढ़ाने वाले शिक्षकों में से किसी अन्य को क्यों नहीं? कारण बहुत सीधा व स्पष्ट है। मेरी माता जी यानी नाना जी के एकमात्र पुत्री जो कि देहरादून में हिंदी की एक वरिष्ठ अध्यापिका है, वह एक कर्मनिष्ठ, सत्यप्रेमी, ईमानदार एवं निष्ठा से काम करने वाली व्यक्तित्व की स्वामिनी है। जिसने उन्हें विरासत में ये सभी गुण दिए उस व्यक्ति का परिचय मैं आप सभी से करवाना चाहता हूं। जब-जब मैं नाना जी के बारे में माता जी से सुनता हूं तो मुझे नवीन प्रेरणा और नई चेतना मिलती है।

एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार 3 नवंबर 1930 में जन्मे मेरे नाना जी का पूर्ण जीवन अनेक समस्याओं से जूझ कर एक ऐसा आदर्श स्थापित कर गया कि आने वाली पीढ़ियों के लिए वह एक अमिट यादगार तथा प्रेरणास्रोत बन गया। छः महीने की अवस्था में अपने माता पिता को खोकर बड़े भाई के साथ उन्होंने स्वावलंबन सीखा। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य, इतिहास एवं राजनीति शास्त्र में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की तथा उर्दू-फारसी का भी ज्ञान प्राप्त किया। नाना जी को बचपन से ही कर्मठ व सत्यभाषी होने की शिक्षा मिली। वह भलीभाँति जानते थे कि:-

" सत्यम ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम। 
प्रियम च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः।।"

 

अर्थात सत्य बोलो प्रिय बोलो। ऐसा सत्य बोलो प्रिया बोलो ऐसा सत्य ना बोलो जो अप्रिय हो। प्रिय लगने वाला झूठ भी ना बोलो यह सनातन धर्म है।

छोटे कद के दुबले पतले परंतु गरिमामय एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले नाना जी जब कुछ कहने के लिए खोलते थे तो उनकी शब्द जैसे वेदवाक्य समझे जाते थे। 

'सादा जीवन उच्च विचार' के पोषक पोषक नाना जी ने अपने बच्चों को सात्विकता, सादगी, सरलता तथा सहजता का जीवन जीने की शिक्षा दी। सन 1964 में आपने अवकाश ग्रहण किया और उसी समय यू.पी. बोर्ड के अंग्रेजी भाषा में पुस्तकें भी लिखीं। उनके छात्र आज भी उनकी चर्चा करते अपनी आंखें नम कर लेते हैं। सभी उनका बहुत आदर करते थे। 3 नवंबर, 1989 को उनकी जीवन यात्रा पूरी हुई। उस समय मैं बहुत छोटा था परंतु उनका विनम्र व्यवहार मुझे आज भी याद है।

नानाजी की अध्यापन शैली तो 'सोने में सुगंध' वाली कहावत चरितार्थ करती थी। उनकी अध्यापन शैली का ही प्रभाव था कि उनकी कक्षा तथा अंग्रेजी विषय का परीक्षा फल सदैव शत-प्रतिश रहता था। उनमें यह विशेषता थी कि एक समय में वह उतना ही पढ़ाते थे जितना छात्र ग्रहण कर सकें। 

उनके विचार में ईमानदारी के साथ परिश्रम करके जो कुछ भी प्राप्त हो, उसी ही सुखी रहना अच्छा है। उनका यह विचार मुझे संतुष्टि का पाठ पढ़ाता है। आत्म-सुख, आत्म-संतोष, आत्म-शांति व आत्म-संयम आदि गुणों से युक्त उनका व्यक्तित्व अनुकरणीय था। मेरे मन में उनके प्रति बहुत श्रद्धा है। अंत में, यह कह कर मैं अपने विचारों को इतिश्री देना (समाप्त करना) चाहता हूं, कि-

" श्रद्धा को दो सुमन, मुझे चढ़ाने दो उनको,

 यादों की पलकों में, पुनः समाने दो उनको।"

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